साधक मन-बुद्धि से नहीं वरन ‘गुरूमुख’ होकर ही ‘मंजिल’ को पाताः साध्वी अनीता भारती
देहरादून। भक्तों के बुलन्द जयघोषों से दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान, देहरादून का निरंजनपुर स्थित आश्रम सभागार गुंजाएमान हुआ। अवसर था, रविवारीय साप्ताहिक सत्संग-प्रवचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम का। नियत समय प्रातः 09ः00 बजे मंचासीन संगीतज्ञों द्वारा प्रस्तुत किए गए मनभावन भजनों की श्रृंखला के साथ कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ। संस्थान के संस्थापक एवं संचालक सदगुरू आशुतोष महाराज जी की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी भक्तिप्रभा भारती जी ने मंच का संचालन करते हुए भजनों में निहित आध्यात्मिक तथ्यों की विवेचना करते हुए बताया कि संसार रूपी बगीचे में अनेकों तरह के पुष्प नित्य खिलते हैं, कुछ अपनी सुन्दरता और अपनी सुगन्धि से बरबस जनमानस का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं, व्यक्ति स्वयं ही उनकी ओर बढ़कर उन्हें प्राप्त करने का प्रयास किया करते हैं, ठीक इसी प्रकार! संसार में अनन्त जीवात्माएं जन्म लेती हैं, कर्म करती हैं और अपने कर्मानुसार अपनी गति का निर्धारण भी कर लेती हैं, एैसे में! कुछ दिव्यात्माएं भी इसी संसार में विद्यमान होती हैं जो कि ईश्वर को अति प्रिय हुआ करती हैं। परमात्मा उन सौभाग्यशाली आत्माओं को अपने में समाहित कर लेने के लिए सदा लालायित रहते हैं और उन्हें अपने से मिलाने की शाश्वत विधि प्रदान करने के लिए पूर्ण गुरू के दिव्य संदेश के साथ जोड़ दिया करते हैं। प्रभु ही शास्त्रोक्त परम गुरू की शरण को प्राप्त करने की दिशा में उनका मार्गदर्शन किया करते हैं। तब! एैसी जीवात्माएं ईश्वर कृपा से प्राप्त हुए अपने मानव जीवन के परम लक्ष्य अर्थात ईश्वर में ही इकमिक हो जाने के लिए पूर्ण गुरू के पावन ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर अपने भीतर व्याप्त समस्त कर्म संस्कारों, जो कि ईश्वर मिलन में प्रबल बाधाएं बन उनका रास्ता रोकते हैं, इन्हें समाप्त कर अंततः गुरू कृपा से यह आत्माएं परमात्मा में ही विलीन हो जाती हैं। यहीं पर मनुष्य जीवन के जटिल सफ़र का पटाक्षेप हुआ करता है।
आज के साप्ताहिक कार्यक्रम में साध्वी विदुषी अनीता भारती जी द्वारा प्रवचन किए गए, उन्होंने कहा कि आज समाज़ की व्यवस्थाओं के बीच समन्वय बनाकर इंसान जीता है, सांविधानिक नियमों में बंधकर रहने के लिए वह विवश है। कानून तोड़ने पर वह लोकतांत्रिक मूल्यों के अन्तर्गत सज़ा भी पाता है, लेकिन! वैदिककाल में जो नियम, जो कानून, जो कुशल नीति बनाई गई थी उस पर मनुष्य विवशता से नहीं अपितु! स्वेच्छा से उनका पालन किया करता था। धर्मानुकूल आचरण और उसी के मुताबिक समस्त कार्य-व्यवहार करते हुए वह स्वयं तो शांति को प्राप्त किया ही करता था साथ ही अपने सम्पर्क में आने वाले मनुष्यों के साथ-साथ प्रकृति को भी लाभान्वित किया करता था। आज का मनुष्य अपने द्वारा पैदा की गई समस्याओं से स्वयं तो त्रस्त रहता ही है, साथ ही अपने से संबंधित समस्तों को भी अशांति और दुख ही परोसता है। साध्वी ने भीष्म पितामह द्वारा दर्शाए गए उन लोगों का भी सविस्तार वर्णन किया जो आध्यात्मिक मार्ग में विभिन्न प्रकार की भूमिकाएं निभाया करते हैं। प्रसाद का वितरण करते हुए साप्ताहिक कार्यक्रम को विराम दिया गया।