यादों के बीच कालजई रचनाकार, प्रकृति के चितेरे कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल
विनय सेमवाल
“मुझे न जग में कोई जाने, मुझे न परिचित ही पहचाने,
रहूँ में दूर जहाँ, हृदय को छू न सके पृथ्वी के दोष”।।
(चंद्रकुँवर बर्त्वाल 20अगस्त 1919-14 सितंबर 1947)
हिंदी साहित्य जगत को नंदिनी,गीत माधवी,पयस्विनी, काफल पाक्कु आदि कालजयी रचनाएं प्रदान करने वाले भौतिक जगत में अल्पायुऔर साहित्य में अमर कवि चंद्रकुँवर ने जिनके काव्य से हिमालय का सौंदर्य और उसके पहाड़ विलग न हो सके ! ने शायद उक्त पंक्तियाँ “मुझे न जग में कोई जाने ।
अकस्मात जीवन की क्षण भंगुरता के आगे खुद को विवश पाते हुए अपने अंतिम एकाकी क्षणों में अपने काव्यों को साहित्य जगत तक न पहुँचा पाने की पीड़ा में निराश व व्यथित होकर खुद को अंदर से उपेक्षित महसूस करते हुए लिखी हो। 28 वर्ष के युवापन में जब जीवन में नयी उमंगों के साथ कई आशाएं हिलोरे ले रही होती हैं।जवानी भविष्य के सपने बुन रही होती हैं। ऐसे मे ।नियति के निर्मम कुठाराघात से शरीर जब अचानक जानलेवा रोग से ग्रसित हो और मृत्यु से साक्षात्कार होने वाला हो भविष्य की आशाएं धूमिल हो जाय। भविष्य के बुने सपनों का खुद के सामने ,धूल धसरित होता देख कोई भी निराश और व्यथित हो सकता हैं।
28 वर्ष की युवा अवस्था में जब युवा कवि कविता का ककहरा सीख रहा होता है। उस उम्र में प्रौढ कविता का सृजन करने वाले इस अमर कवि को जिसे तब भी साहित्य जगत में यथोचित स्थान नही मिल पाया था (हालाँकि उस दौर में उनके संग्रह भी ज्यादा नहीं आये थे)और अब भी जब उनकी कई कालजयी रचनाएं साहित्य के इस विशाल सागर में अमृत रस घोल रही हैं। विस्मृत कर दिया गया है।जो अखरता भी है और दुःखी भी करता है ।
हैरानी भी है कि विगत दो वर्षों(कोरोना काल) में चली काव्य की तीव्र लहर में साहित्य के विशाल सागर में अपनी रचनाओं का माधुर्य घोलने वाले इस रचनाकार की चर्चा तो दूर कहीं जिक्र भर भी न हुआ। साहित्य मर्मज्ञ नव सृजन कारों से गीत काव्य का यह सृजनकार कैसे छूट गया???? आश्चर्य प्रद है।
कहते है ना! उत्कृष्ट साहित्यकार अपनी कालजयी रचनाओं से अमरत्व पा जाता है।देह तो चली जाती है लेकिन उसके रचे कालजयी साहित्य जिसमें उसकी आत्मा विराजती हैं। वो अमर रहती हैं और नित्य युग युगांतर तक साहित्य प्रेमियों की प्यास बुझाती रहती हैं। कोई चर्चा करे या न करे।
हिन्दी साहित्य जगत में जब छायावाद अपने पूर्ण वैभव के बाद अवसान की ओर था और प्रगतिशील कविता उदय की ओर अग्रसर हो रही थी। तभी सुदूर हिमालय की तलहटी मे मंदाकिनी के एक छोर से युवा “रसिक” की गीत काव्य की धारा भी समाहित होकर साहित्य जगत के सागर काशी और प्रयाग को भी अपनी मधुर लहरों से स्पंदित कर रही थी। विद्रूप लहरों का यह स्पंदन लघु काल तक ही रहा पर उसका मधुर स्पंदन साहित्य जगत में सदा के लिये चिर स्थाई हो गया।
अपने लघु जीवन में कल्पना से परे उच्च साहित्य के सृजनकर्ता चंद्रकुँवर सिंह बर्त्वाल जिन्हें हिंदी के प्रख्यात समालोचक नामवर सिंह ने साहित्य जगत में सानेट के प्रवर्तकों में अग्रणीय माना है , का जन्म हिमालय की उपत्यका में 20अगस्त 1919 को रुद्रप्रयाग जनपद के तल्ला नागपुर के मालकोटी गाँव के संभ्रांत थोकदार परिवार ठाकुर भूपाल सिंह बर्त्वाल जो नागनाथ मिडिल स्कूल में प्रधानाचार्य भी थे तथा जानकी देवी के इकलौती संतान के रूप में हुआ था। इनका वास्तविक नाम कुँवर सिंह बर्त्वाल तथा साहित्यिक नाम चंद्रकुँवर था।इन्होंने प्रारंभ में कुछ कविताएं “रसिक” नाम से भी लिखी थी।
अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्रा. वि.उड़ामांडा से तथा मिडिल स्कूल नागनाथ से 1928 में कक्षा सात की परीक्षा उत्तीर्ण कर पौड़ी के मेसमोर हाई स्कूल से विज्ञान वर्ग में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की।उसके पश्चात 1937 में डी ए वी कॉलेज देहरादून से इंटर मीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण कर 1939 में उच्च शिक्षा के केंद्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की। लखनऊ में इतिहास से एम ए करने के दौरान ही स्वास्थ्य खराब होने पर वापस पहाड़ लौट आये। यहाँ भी आप ने सक्रिय रहते हुए अगस्त्यमुनि में मिडिल स्कूल की स्थापना कर कुछ वर्षों तक प्रधानाध्यापक का पद भी सुशोभित किया ।
हिमालय के प्रकृति चित्रण का यह भावुक चितेरा 28 वर्ष के अपने लघु जीवन में 14 सितंबर 1947 को यह कहकर__
“मै जाता हूँ सपनो में, फिर उस प्रिय वन में, जहाँ मिली थी, मुझको वह हँसती बचपन में” ———————————।
साहित्य जगत को गीत काव्यों का विस्तृत विराट उपवन सौपकर जिसमें साहित्य के सभी भावों के पुष्प पलवित् हुए थे, इह लोक से अनंत अंतरिक्ष में विराजमान हो गया।
निश्चित ही यदि चंद्रकुँवर अल्पायु न होते तो उनका काव्य कोष कई अधिक विस्तृत और विराट होता तथा हिंदी काव्य धारा का रुख ही कुछ और होता।
उस दौर में जब छायावाद के अवसान के साथ प्रयोगवाद नई उमंग के साथ बड़ रही थी मे चंद्रकुँवर बर्त्वाल ने दोनों के बीच एक अलग धारा का सृजन कर अपनी काव्य रचनाएं लिखी।उस कालखंड में निराला के अलावा बर्त्वाल ही थे जिन्होंने मुक्त छंद का प्रयोग किया। निराला,पंत,महादेवी वर्मा के समकालीन चंद्रकुँवर को समीक्षकों ने हिंदी साहित्य का कालिदास माना है।
डॉ नामवर सिंह ने तो हिमालय के इस अमर गायक को 1935-40 के दौर में सानेट लेखन की परंपरा को स्थापित करने वाले प्रवर्तकों में प्रमुख बताया है। उमेश चंद्र मिश्र ने सरस्वती पत्रिका के जनवरी 1948 के अंक में बर्त्वाल के काव्यगत सौंदर्य व सजीव वर्णन के बारे में लिखा है __
ऋग्वेद सजीव प्रकृति वर्णन का जो रूप उन्होंने अपनी रचनाओं में उपस्थित किया है वह अन्यत्र देखने को नही मिलता। इस विकासोन्मुख सच्ची कविता का हमारे बीच से उठ जान सचमुच हमारे और हिंदी के दुर्भाग्य का सूचक है।
राहुल सांक्रित्यायन काफल पाक्कु कविता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इनका उपनाम काफल पाक्कु ही रख दिया। प्रसिद्ध साहित्य कार राजेश जोशी के अनुसार बर्त्वाल की कविताओं मे प्रकृति का ऐसा सजीव वर्णन मिलता है कि विश्व प्रसिद्ध चित्रकार रोरिक के चित्रों की याद दिला देते हैं।
प्रयाग शुक्ल ने लिखा है कि किसी वाद में न बंधे होने के कारण साहित्य जगत में उनकी चर्चा बहुत नहीं हुई जबकि बाद के लेखको और प्रवृत्तियों की चर्चा आसानी से की जाती है।
अब तक उपलब्ध रचनाओं के आधार पर चंद्रकुँवर बर्त्वाल ने लगभग 800से अधिक गीत,और कविताएं लिखी।जिनमें 25 से अधिक गद्य रचनाएं भी हैं। चंद्रकुँवर बर्त्वाल के काव्य को आम जनमानस तक पहुँचाने के लिए शंभु प्रसाद बहुगुणा, पं बुधीवलभ थपलियाल”श्रीकंठ”, डॉ उमा शंकर सतीश (जिन्होंने 269 कविताओं, गीतों का प्रकाशन कराया),डॉ योगम्बर सिंह बर्त्वाल का सदैव ऋणी रहेगा।
विशेष कर हिंदी साहित्य जगत आभारी है पं शंभु प्रसाद बहुगुणा का जिन्होंने सबसे पहले चंद्रकुँवर बर्त्वाल की रचनाओं का सुव्यवस्थित संकलन कर प्रकाशित कराया।
बर्त्वाल जी के काव्य संग्रहों में नंदिनी, गीत माधवी (लघु गीतों का संकलन), पयस्विनी, (प्रकृति परक रचनाओं का संकलन)जीतू(जीतू बगड्वाल की कथा पर), प्रणयिनी काव्य आदि प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त आपने निबंध, कहानियाँ, एकांकी, आलोचनाएं, यात्रा विवरण, आदि सभी विधाओं पर लिखा।
उत्तराखंड राज्य सृजन के पश्चाद् आशा थी कि हमारे शैक्षणिक पाठ्यक्रमों के नीति निर्धारकों द्वारा कुछ शोधार्थियों तक ही सीमित रह गये कुँवर के काव्य को नयी पीढ़ी से परिचित कराने के लिए माध्यमिक स्तर के पाठ्यक्रमों में शामिल किया जायेगा लेकिन विद्रूप यह अमर कवि अपने जीवन की भाँति यहाँ भी नियति का शिकार हो गया।
हिमालय के अमर गायक हिंदी साहित्य के कालिदास को उनकी इस रचना
“अब छाया में गुँजन होगा, ।
वन में फूल खिलेंगें।
दिशा में अब सौरभ के धूमिल मेघ उड़ेंगे।
अब रसाल की मंजिरियों पर,
पिक के गीत झरेंगे,
अब नवीन किसलय मारुत में,
मर्मर मधुर करेंगे। (गीत माधवी) ये बाँज पुराने पर्वत से यह हिम सा ठंडा पानी,,,,,,,,,,,,,। (नागनाथ) के माध्यम से दिल की अनंत गहराइयों से कोटि कोटि
(संदर्भ- डॉ पिताम्बर दत्त बड़थ्वाल हिंदी अकादमी द्वारा प्रकाशित त्रैमाशिक् शोध पत्रिका केदार मानस में विद्वानों के लेख )